अधूरे सच की गूँज
रेणुका की उंगलियाँ विनिता के कंधे पर कस गईं।
उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन भारी—“कब तक भागोगी, विनिता?”
पाँच साल पहले – अस्पताल
विनिता दर्द से कराह रही थी। हर तरफ सफ़ेद दीवारें, डॉक्टरों की भाग-दौड़, और उसके आसपास नर्सों की फुसफुसाहट थी।
“सुंदरता कितनी नाजुक होती है न?” एक नर्स हँसते हुए दूसरी से कह रही थी। “बच्चे को दूध पिलाने के बाद तो शरीर ढल जाता है… चेहरे की चमक चली जाती है… फिर कौन सा पति वैसे प्यार करता है?”

दर्द में डूबी विनिता की आँखें अचानक खुलीं।
उसकी नज़र सीधे शीशे में खुद पर पड़ी—सजीव, सुंदर, वो रूप जिससे अंकुश मोहब्बत करता था।
“अगर मैंने कुश को दूध पिलाया, तो क्या मैं भी बदल जाऊँगी?”
“अगर मैं बदल गई, तो अंकुश मुझे छोड़ देगा?”
उसका गला सूखने लगा।
अस्पताल के एक दूसरे कमरे में रेणुका भी प्रसव पीड़ा से तड़प रही थी।
उसने एक बेटी को जन्म दिया था।
कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था, कोई उसका हाथ थामने वाला नहीं था।