अधूरे सच की परछाइयाँ
कमरा अंधेरे में डूबा था, लेकिन विनिता के भीतर एक तूफ़ान उठ रहा था।
अंकुश पूरा शराब में डूब चुका था, उसकी आँखें लाल थीं, उसकी साँसों में शराब की बदबू थी।

विनिता ने खुद को अलग करने की कोशिश की, लेकिन उसकी पकड़ बेरहम थी।
“अंकुश, छोड़ो… मत करो ये!”
उसकी आवाज़ काँपी, मगर अंकुश ने उसकी तकलीफ़ को अनसुना कर दिया।
वह उसके हाथों को बेदर्दी से पकड़कर बिस्तर पर दबा चुका था।
उसकी आँखों में अब पति का प्यार नहीं, सिर्फ़ हवस का पागलपन था।
विनिता छटपटाई, खुद को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वह पूरी ताकत से उसे कुचल रहा था।
“अंकुश, यह ज़बरदस्ती है! मैं तुम्हारी बीवी हूँ, कोई चीज़ नहीं!”
पर उसकी चीखें बेकार थीं।